Sunday, January 2, 2011

हिस्टरी ऑफ़ दिस्प्लासमेंट

विस्थापन का इतिहास


भारत में विस्थापन का इतिहास ई॰ पू॰ लगभग 2000 साल पहले हड़प्पा और मोहनजोदड़ो की सभ्यता के समय शुरू होता है, जब मुण्डा और द्रविड़ों को अपनी सभ्यता छोड़ने को बाध्य किया गया और उन्हें मध्य व दक्षिण भारत की ओर जाना पड़ा। हमारे पास ऐसे कई ऐतिहासिक साक्ष्य हैं, जिससे हम पाते हैं कि सभ्यता एक रूप से दूसरे रूप में परिवर्तित हुई और आम मजदूर तबके के बीच ‘‘साम्राज्यवादी ताकतों’’ को विस्तार देने और स्थापित करने के लोभ में सत्ता वर्ग ने जनता पर प्रभुत्व स्थापित किया। ऐसा ‘‘मगध साम्राज्यवाद’’ को पूरे भारत में विस्तार देने के क्रम में और भारत के स्वर्णकाल के दौरान ‘‘राष्ट्र राज्य’’ के लिए तंत्र स्थापित करने के दौरान देखा गया है। हमने कलिंग युद्ध और उसमें हुए विषाल जनसंहार के बारे में पढ़ा है, यह वह समय था जब ‘‘एक क्षेत्र के राजा ने सम्राट बनने की कोषिश की थी’’ और यही स्थिति अंग्रेजों के भारत-आक्रमण, पहले और दूसरे विश्वयुद्ध, वैश्वीकरण के दौर और सेज आदि मामलों में भी देखी जा सकती है। हम विस्थापन और हिंसा का सामना कर रहे हैं। ब्रिटिश भारत में 1600 ई. में आये और 1793 तक उन्होंने राजाओं को हराकर भारत के लगभग सभी ‘‘रियासतांे’’ पर विजय प्राप्त कर ली। 1793 में उन्होंने समाज में शोषणकारी ‘‘ढाँचा‘‘ तैयार कर देश में राज करने के लिए एक तंत्र बनाना शुरू किया और तब इस ढाँचे के सहारे जंगल और जमीन के स्थायी बंदोबस्ती के लिए नियम व कानून और संसाधनों पर नियंत्रण के लिए संबंधित काननू बनाये गये। और शासन की इस प्रक्रिया में शासकों के लिए आम लोगों को गुलाम बनाया गया।शासन तंत्र की स्थापना के बाद, हर बार शासक वर्ग ने श्रमिक वर्ग से राजस्व उगाही की प्रक्रिया को बल पूर्वक लागू किया है। यह मगध साम्राज्य से शुरू होकर वर्तमान सरकार तक चला आ रहा है और राजस्व उगाही के लिए इस ढांचे को बदला जाता रहा है एवं नया ढॉंचा तैयार किया जाता रहा है, जैसे कि भारत में ब्रिटिशों ने जमींदारी प्रथा की शुरूआत की। साथ-ही-साथ समय के इसी काल-खंड में भारत में जनता के अहिंसक प्रदर्शनों की शुरूआत हुई और इस व्यवस्था के विरोध में सामूहिक विरोध के स्वर उभरे और इसे हूल क्रांति, संथाल क्रांति, मुण्डा क्रांति, मापिल्ला किसान आन्दोलन, डक्कन दंगा, आंध-प्रदेष, उत्तर-प्रदेष व पंजाब के किसान आन्दोलनों, बिहार के चम्पारण व पं. बंगाल में हुए नील आन्दोलनों में और अन्य जगहों पर हुए ढेर सारे किसान व आदिवासी आन्दोलनों में देखा जा सकता है। लेकिन सम्राट अशोक के कलिंग से लेकर स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद के 2010 के कलिंग तक राज्य सत्ता ने इन आन्दोलनों को कुचलने के लिए हमेशा हिंसा का प्रयोग किया है। जब-जब व्यवस्था आन्दोलनों को कुचलने की कोशिश करती है तब-तब जनता का अहिंसक आन्दोलन ख्ूान से लाल हो जाता है और यह शोशणकारी ढांचा इस कारण हिंसा का प्रयोग करता है ताकि श्रमिक वर्ग के उपर उनकी श्रेष्ठता बनी रहे।
जब 1869 में भारत में जन आन्दोलन (संथाल, खेखार और किसान आन्दोलन) चरम पर था और वे जमीन पर मालिकाना हक की मांग कर रहे थे तो ब्रिटिशों ने अपने कानून में संषोधन किया और जमींदारों के अलावे रैयतों को भी जमीन का मालिकाना हक दिया और किसानों व रैयतों के बीच जमीन की खरीद-बिक्री प्रारम्भ हुई लेकिन कुछ ही समय बाद 1894 में ब्रिटिश सरकार ने एक कानून ‘‘भूमि अधिग्रहण कानून 1894’’ के नाम से बनाया और किसानों के अधिकार छीन लिये। इस तरह उसने राष्ट्र-राज्य के हित या सिर्फ पब्लिक के हित के लिए (पब्लिक का अर्थ है कि वे लोग जो इस नागरिक समाज में नागरिक अधिकारों का लाभ उठाते हैं) बड़े पैमाने पर विस्थापन शुरू किया । स्वतंत्र भारत में भी यह कानून दमनकारी तेवर में बिना किसी बदलाव के जारी है। 1967 और 1984 में इसकी परिभाषा को बदलने और इसके द्वारा गरीब किसानों की जमीन को विशेष रूप अधिग्रहित करने के लिए इसमें कुछ संशोधन किये गये लेकिन अभी भी इस कानून का दमनकारी तेवर नहीं बदला है और आज तक यह पूंजीवादियों व साम्राज्यवादियों का समर्थन करने वाला कानून है। अपने देश के वन-आच्छादित इलाकों में भी हम ऐसी ही स्थिति देख सकते हैं । बिटिशों ने वन क्षेत्रों में भी हस्तक्षेप किया और जंगलों से राजस्व वसूली की प्रक्रिया शुरू की एवं मद्रास प्रेसीडेंसी के अधीन 1807 से ही जंगलों से संबंधित कानून बनाये । साम्राज्यवादी जरूरतों के लिए संसाधनों को सुरक्षित करने के लिए 1865 से 1894 के बीच संरक्षित वनों ;आरक्षित वनद्ध की स्थापना की गई । ब्रिटिशों ने अपनी जरूरत के हिसाब से वनों का वर्गीकरण किया और संसाधनों पर अपना नियंत्रित भी स्थापित किया एवं स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद सत्तारूढ़ दल भी उसी चरित्र को बनाये रखे हुए हैं। हम कोयला खदानों के कारण हुए विस्थापन को भी देख सकते हैं और साम्राज्यवादी राज्य की जरूरतों को पूरा करने के लिए भारत में ऐसे विस्थापनों का लंबा इतिहास है।
भारत में व्यवसायिक कोयला खुदाई का लगभग 234 साल पुराना और लंबा इतिहास है, 1974 में दामोदर नदी के पश्चिमी तट पर रानीगंज के कोयला खादानों में ईस्ट इंडिया कंपनी के मेसर्स सुमनेर एण्ड हेटली द्वारा खुदाई शुरू की गई थी। आगे 1952 में भारत सरकार ने माईंस एक्ट पास किया और 1956 में भारत सरकार के उपक्रम के रूप में राष्ट्रीय कोयला विकास निगम ;एनडीसीद्ध की स्थापना की गयी। भारत सरकार ने 1957 में कोयला संभावित क्षेत्र (अधिग्रहण व विकास) नियम पास किया। राष्ट्रीयकरण दो चरणों में किया गया, पहला 1971-72 में कोकिंग-कोल खदानों का और 1973 में गैर कोकिंग-कोल खदानों का। अक्टूबर 1971 में कोकिंग-कोल खदान (आपातकालीन प्रावधान) अधिनियम,1971 पास किया गया। इसके तुरंत बाद कोकिंग-कोल खदान (राश्ट्रीयकरण) अधिनियम, 1972 पास किया है। इसके आधार पर टाटा आइरन एण्ड स्टील कंपनी लिमिटेड और इंडियन आइरन एण्ड स्टील कंपनी लिमिटेड के कोयले खदानांे और कोक ओभन प्लांट्स को छोड़ ष्षेष सभी का 1.5.1972 को राष्ट्रीयकरण कर दिया गया और इन्हें भारत कोकिंग कोल लिमिटेड ;विसीसीएलद्ध के अधीन लाया गया, जो कि केन्द्र सरकार का एक नया उपक्रम था। एक अन्य कानून, मुख्यतः कोल माईंस (प्रबंधन का अधिग्रहण) अधिनियम, 1973 के तहत भारत सरकार के अधिकार को यह विस्तार दिया गया कि वो राज्यों में कोकिंग और गैर-कोकिंग कोल खदानों के प्रबंधन का अधिग्रहण कर सकती है, जिसमें कि 1971 में अधिग्रहित किये गये कोकिंग कोल खदान भी सामिल थे। इसके तुरंत बाद 1.5.1973 के कोयला खदान (राष्ट्रीयकरण) अधिनियम, 1973 के सहारे इन सभी खदानों का राष्ट्रीयकरण कर दिया गया। हम इन सरकारी नियमों के आईने में यह भी देख सकते हैं कि भारत सरकार ने बड़ी-बड़ी कंपनियों की जरूरत को ध्यान में रखकर नियम व कानूनों की एक लंबी श्रृंखला बनाई और इन आदिवासी इलाके में हुए विस्थापन के दर्द को भूल गई। यह बिल्कुलस्पष्ट है कि जब तंत्र शासकों के लिए काम करता है तो यह नियम व कानून पूरी तरह सही तरीके से लागू होते हैं लेकिन जब आम-जनता के कल्याण की बात अपनी है तो यही तंत्र नकारा साबित होता है। उस पर सितम यह कि ब्रिटिशों (जिन्होंने हमें गुलाम बनाया) द्वारा बनाये गये नियम व कानून को हमारी सरकार उसी तरह या उससे भी ज्यादा उग्र व शोषणकारी तरीके से डैम-निर्माण, खदानों की खोज, औद्योगिक प्रतिष्ठानों के निर्माण, अभयारण्यों की घोषणा, संरक्षित वनों में सामुदायिक वनों की घोषणा, बराज-निर्माण, शहरों के विस्तार के नाम पर लागू कर रही है और इस कारण गरीब लोगों का बड़े पैमाने पर विस्थापन हो रहा है। देश के पूर्वी राज्यों में विस्थापन की स्थिति कमोबेेश एक जैसी ही है।

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